बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-२








खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-१


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शाम को डॉक्टर फ़िर आईं और मेरे चेहरे की तरफ़ देखते हुए आश्चर्यमिश्रित मुस्कान से पूछा,

“बहुत फ़्रेश लग रही हैं आप?”

“हाँ डॉक्टर! ज़िन्दगी से एक नई जंग लड़ने के लिए खुद को तैयार जो करना है।” ये कहते हुए अपने आप से फ़िर एक वादा किया, कभी घबराकर हिम्मत ना हारने का।

थोड़ी देर बाद नर्स ने मेरी बेटी को लाकर मेरे हाथों में दिया, और मुस्कुरा कर कहा,

“अब आप खुद इसे अपना दूध पिला सकती हैं। आपको अच्छा नहीं लगता था ना, बोतल में दूध निकाल कर देना?”

मैं कुछ देर तो बैठ कर उसे देखती ही रही और उसके नर्म-२ शरीर पर अपनी उँगलियाँ फ़िराती रही। उसके सिर का एक भाग कुछ फ़ूला हुआ था। मैंने नर्स की तरफ़ प्रश्नवाचक निगाहों से देखा।

“इसके ब्रेन का इस तरफ़ का हिस्सा डेमेज हुआ है, इसलिए ये इस तरह फ़ूला है।” नर्स ने मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा।

वो शायद मेरी आँखों में दर्द ढूँढ़ रही थी। पर उसे वहाँ हौसले और आत्मविश्वास के सिवा और कुछ ना मिला। मैंने अपनी बेटी को अपने सीने से चिपटा लिया और उस सुख का अनुभव करने लगी, जिसके लिए मैं इतने दिनों से तरस रही थी।

अगले दिन मैं अपनी प्यारी सी गुड़िया ‘कुहू’ को लेकर घर आ गई। मैं खुश थी कि मेरे पति भी मेरी इस जंग में हर कदम पर मेरे साथ थे।

मैंने लोगों से मिलना-जुलना, बात करना सब बन्द कर दिया, क्योंकि सभी लोगों की ज़ुबान पर एक ही बात रहती थी,

“तुम्हारी तो ज़िन्दगी ही बरबाद हो गई। भगवान ने एक तो बेटी दी, वो भी ऐसी। इससे अच्छा तो वो इसे उठा ले। बच्चों का क्या है, और हो जाएँगे।”

मैं अपनी बेटी को ऐसी बद्दुआओं से बचा कर रखना चाहती थी। इसलिए उसे ऐसे लोगों से बचा कर रखना जरूरी था।

धीरे-२ हम लोग सामान्य ज़िन्दगी की ओर लौटने लगे। इसके बाद दौर चला फ़िज़ियोथेरेपी, एक्यूप्रेशर और होम्योपैथी का। सुबह से शाम हो जाती थी, अंग-२ थक कर चूर हो जाता था; पर ज़िन्दगी फ़िर भी आँखों में मुस्कुराती थी, जब मैं अपनी बेटी की हालत में थोड़ा सा भी सुधार देखती थी। शुरुआत में कुहू एक रक्त-माँस की बनी गुड़िया की तरह थी, जिसमें जीवन के चिन्ह के रूप में सिर्फ़ साँसों का आना-जाना और पलकों का झपकना ही था। दो-एक दिन में कभी रो देती थी, तो कभी एक-आध बार हाथ-पैर हिला देती। मैं अक्सर उसके आगे-पीछे से, उसके दायें-बायें से उसका नाम लेकर पुकारती कि कभी तो वो मेरी तरफ़ देखे, पर हमेशा निराशा ही हाथ लगती।

एक दिन अचानक मोबाइल में बजी रिंगटोन की तरफ़ उसने अपना सिर घुमाया। मेरी आँखों से आँसू की एक बूँद टपक पड़ी,

“ये म्यूजिक समझती है।” मैं मन ही मन बुदबुदाई।

बस उसी पल मुझे वो राह दिख गई थी, जिस पर मुझे आगे बढ़ते जाना था। मैंने ठान लिया था और मन ही मन दुहराया,

“मैं म्यूजिक को इसकी ज़िन्दगी बना कर छोड़ूँगी।”

बस उस दिन के बाद से जब भी मार्केट जाती, मैं अपनी कुहू के लिए कोई ना कोई म्यूजिक वाला खिलौना उठा लाती। म्यूजिकल ड्रम, ढोलक, सिंथेसाइजर, बाँसुरी और वो गाना गाने वाली गुड़िया, कितने ही तो खिलौने इकट्ठे हो गए थे उसके पास। वो कभी एक खिलौना उठाती, कभी दूसरा; दस-२ मिनट में तो मूड चेंज होता था हमारी गुड़िया रानी का।

समय धीरे-२ बीत रहा था। फ़िज़ियोथेरेपी ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया, अब वह अपने सहारे ५-१० मिनट बैठने लगी थी। होम्योपैथी से उसके समझने की शक्ति भी धीरे-२ बढ़ रही थी। ३ साल की होते-२ अब वह पूरी तरह अपने सहारे बैठने लगी।

एक दिन मैं उसे उसके खिलौनों के पास छोड़ कर किचन में खाना बनाने चली गई। कुछ देर बाद जब लौट कर कमरे में वापस आई, तो वो अपनी जगह पर नहीं थी। मेरा दिल जोर-२ से धड़कने लगा। पर अचानक मेरी नज़र कमरे के एक कोने पर गई; वो वहाँ पर बैठी रैक में से चप्पल, जूते निकाल-२ कर फ़ेंक रही थी। मेरी खुशी से लगभग चीख निकल गई थी,

“ये तो अपने-आप खिसकने भी लगी।”

शाम को जब मेरे पति घर आए, तो मैंने अपने हाथों से बनाए बेसन के लड्डू उनके सामने रखे; जब उन्होंने कारण पूछा तो मैंने मन्द-२ मुस्काते हुए सारी बात बताई। वो भी बहुत खुश हुए, पर उन्हें अफ़सोस था कि ये नज़ारा वो अपनी आँखों से नहीं देख पाए।

अब मेरे लिए नया माइल-स्टोन था, इसे इसके पैरों पर खड़ा करना। मैं अपनी नौकरी छोड़ चुकी थी, मेरे पति ने आर्थिक-ज़िम्मेदारी पूरी तरह से अपने कन्धों पर उठा ली थी। मैंने सब कुछ छोड़ कर अपना पूरा ध्यान अब कुहू पर केन्द्रित कर दिया था। २ साल की मेहनत के बाद मैं इसे इसके पैरों पर खड़ा कर पाई; अब तो इसने धीरे-२ चलना भी सीख लिया था। हालाँकि कदम डगमगाते थे, पर मुझे पता था जल्दी ही ये कमी भी दूर हो जाएगी।


            
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                                                                                                               ...क्रमश:


खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-३




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