बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-३








खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-१

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-२



परन्तु मेरी खुशी अब भी अधूरी थी। लाख कोशिशों के बाद भी कुहू के मुँह से एक भी बोल नहीं फ़ूटा। हाँ, अस्फ़ुट स्वरों में पूरे दिन कुछ अजीब तरह की आवाजें जरूर निकालती रहती थी। मुझे लगा कि बिना कुछ बोले तो इसके लिए कोई भी राह आसान नहीं होगी; पर एक आशा की किरण अब भी बाकी थी, वो था म्यूजिक के प्रति इसका प्रेम। वैसे तो इसे सभी तरह के वाद्य-यन्त्रों से प्यार था, पर सबसे प्रिय था सिंथेसाइजर। कभी रोते हुए भी इसके सामने सिंथेसाइजर रख दो, तो मैडम जी रोना भूल कर अपनी उँगलियाँ उस पर नचाने लगती थीं। बचपन से अब तक दो सिंथेसाइजर खराब कर चुकी थीं ये।

मैंने घर पर ही इसके लिए सिंथेसाइजर सिखाने के लिए एक टीचर का इन्तजाम किया। पर एक-दो महीने बाद ही वो हार मान गए। कुहू को सिखाना इतना आसान काम नहीं था, क्योंकि वो बहुत ही मुश्किल से किसी बात को समझती थी। एक टीचर हार सकता था, पर एक माँ कभी नहीं। वैसे भी कुहू को सिखाना उनके बनिस्बत मेरे लिए आसान काम था; क्योंकि इतने सालों में मैं उसे बहुत अच्छी तरह समझने लगी थी। मैंने अपनी कुहू से वादा किया,

“तू चिन्ता मत कर। मैं सिन्थेसाइजर को तेरे लिए खुशी का वो साज़ बना दूँगी, जिस पर तू एक दिन अपनी ज़िन्दगी के तराने गुनगुनाएगी।”

इसके बाद जो टीचर मैंने कुहू के लिए लगाया था, उनसे मैं खुद घर पर ही सिंथेसाइजर सीखने लगी। फ़िर नए-२ तरीके ईज़ाद कर कुहू को सिखाना शुरू किया। अब धीरे-२ कुहू की-बोर्ड समझने लगी थी और उम्र बढ़ने के साथ-२ जैसे-२ उसकी समझ बढ़ी, मेरे लिए उसे सिखाना आसान होता गया। एक दिन तो उसने मुझे टोक दिया और इशारे से समझाया कि मैं गलत सुर पर हूँ। मैं खुशी से खिल उठी, ये सोच कर कि आखिर मेरी मेहनत बेकार नहीं गई। अब तो की-बोर्ड पर उसकी उँगलियाँ थिरकती थीं।

एक दिन अखबार में एक संगीत-संध्या प्रोग्राम का एड देख कर मेरी आँखें चमक उठी। प्रोग्राम नेशनल लेवल का था। प्रत्येक बच्चे को किसी भी वाद्य-यंत्र पर १५ मिनट तक परफ़ॉर्म करना था। मैंने फ़ॉर्म लाकर कुहू का नाम भी रजिस्टर करवा दिया।

प्रतियोगिता वाले दिन जब हम कार्यक्रम-स्थल पर पहुँचे, तो शुरू में कुहू भीड़ देख कर घबराने लगी। पर धीरे-२ हमने उसे संयत किया। हालाँकि इस कार्यक्रम में उसे दूसरा स्थान मिला, पर उसके नाम को एक पहचान मिल गई थी।

अब तो कई स्टेज शो के लिए उसे ऑफ़र भी आने लगे। एक संस्था ने तो उसे स्कॉलरशिप भी देनी शुरू कर दी। अब धीरे-२ उसका आत्मविश्वास तो बढ़ ही रहा था, साथ ही ज़िन्दगी के प्रति उसकी ललक भी देखते ही बनती थी।

धीरे-२ उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ने के साथ-२ कुहू सफ़लता के नए-२ सोपान भी पार करती चली गई। मेरे घर के शो-केस अब उसके अवार्डों से भरने लगे। एक शहर से दूसरे शहर फ़ैलते-२ उसकी ख्याति इस देश की सीमाओं को भी पार कर गई। अब अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कुहू के नाम को पहचान मिल गई थी। अब उसके नाम से स्टेज शो ऑर्गनाइज होने लगे थे। हम भी उसके साथ-२ एक देश से दूसरे देश के सफ़र पर निकल पड़े थे।

एक दिन अचानक टी.वी. देखते हुए मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा, जब घोषणा हुई कि कुहू को ग्रेमी अवार्ड देने का निर्णय किया गया है। उसने अपने और हमारे साथ-२ इस देश का नाम भी रौशन कर दिया था। वो तो शायद ही ज़िन्दगी में कभी ये जान पाए कि उसने क्या पा लिया है; पर उसने अपनी माँ को ये एहसास जरूर करा दिया था कि उसने अपनी बेटी के लिए जो सपना देखा था, वो गलत नहीं था। शाम को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा अन्य गणमान्य लोगों के बधाई सन्देश भी प्राप्त हुए। मुझे ये सारा कुछ किसी स्वर्ग जैसी फ़ीलिंग दे रहा था।

आज तो उन लोगों के भी फ़ोन आ रहे थे, जो मेरी बेटी को मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा ग्रहण मानते थे और सोचते थे कि मैं इसके अन्धकार में ही एक दिन घुट-२ कर मर जाऊँगी। पर मेरी बेटी ने तो अपनी आभा से उनकी आँखें चौंधिया दीं।

अचानक रेड लाइट पर गाड़ी में लगे ब्रेक से मेरी तंद्रा टूटी और मैं एक झटके में अपने अतीत से वापस आ गई। नज़र घुमाकर मैंने अपनी बेटी की ओर देखा, जो इस सब से बेखबर शहर में चारों ओर जगमग करती लाइटें देख कर खुश हो रही थी और मेरे कानों में खुशी के साज पर बजते मद्धम-२ सुर अठखेलियाँ कर रहे थे..........!!

                                

                                                         ********



                                                                                                             -समाप्त-



बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-२








खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-१


----------------------------------------


शाम को डॉक्टर फ़िर आईं और मेरे चेहरे की तरफ़ देखते हुए आश्चर्यमिश्रित मुस्कान से पूछा,

“बहुत फ़्रेश लग रही हैं आप?”

“हाँ डॉक्टर! ज़िन्दगी से एक नई जंग लड़ने के लिए खुद को तैयार जो करना है।” ये कहते हुए अपने आप से फ़िर एक वादा किया, कभी घबराकर हिम्मत ना हारने का।

थोड़ी देर बाद नर्स ने मेरी बेटी को लाकर मेरे हाथों में दिया, और मुस्कुरा कर कहा,

“अब आप खुद इसे अपना दूध पिला सकती हैं। आपको अच्छा नहीं लगता था ना, बोतल में दूध निकाल कर देना?”

मैं कुछ देर तो बैठ कर उसे देखती ही रही और उसके नर्म-२ शरीर पर अपनी उँगलियाँ फ़िराती रही। उसके सिर का एक भाग कुछ फ़ूला हुआ था। मैंने नर्स की तरफ़ प्रश्नवाचक निगाहों से देखा।

“इसके ब्रेन का इस तरफ़ का हिस्सा डेमेज हुआ है, इसलिए ये इस तरह फ़ूला है।” नर्स ने मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा।

वो शायद मेरी आँखों में दर्द ढूँढ़ रही थी। पर उसे वहाँ हौसले और आत्मविश्वास के सिवा और कुछ ना मिला। मैंने अपनी बेटी को अपने सीने से चिपटा लिया और उस सुख का अनुभव करने लगी, जिसके लिए मैं इतने दिनों से तरस रही थी।

अगले दिन मैं अपनी प्यारी सी गुड़िया ‘कुहू’ को लेकर घर आ गई। मैं खुश थी कि मेरे पति भी मेरी इस जंग में हर कदम पर मेरे साथ थे।

मैंने लोगों से मिलना-जुलना, बात करना सब बन्द कर दिया, क्योंकि सभी लोगों की ज़ुबान पर एक ही बात रहती थी,

“तुम्हारी तो ज़िन्दगी ही बरबाद हो गई। भगवान ने एक तो बेटी दी, वो भी ऐसी। इससे अच्छा तो वो इसे उठा ले। बच्चों का क्या है, और हो जाएँगे।”

मैं अपनी बेटी को ऐसी बद्दुआओं से बचा कर रखना चाहती थी। इसलिए उसे ऐसे लोगों से बचा कर रखना जरूरी था।

धीरे-२ हम लोग सामान्य ज़िन्दगी की ओर लौटने लगे। इसके बाद दौर चला फ़िज़ियोथेरेपी, एक्यूप्रेशर और होम्योपैथी का। सुबह से शाम हो जाती थी, अंग-२ थक कर चूर हो जाता था; पर ज़िन्दगी फ़िर भी आँखों में मुस्कुराती थी, जब मैं अपनी बेटी की हालत में थोड़ा सा भी सुधार देखती थी। शुरुआत में कुहू एक रक्त-माँस की बनी गुड़िया की तरह थी, जिसमें जीवन के चिन्ह के रूप में सिर्फ़ साँसों का आना-जाना और पलकों का झपकना ही था। दो-एक दिन में कभी रो देती थी, तो कभी एक-आध बार हाथ-पैर हिला देती। मैं अक्सर उसके आगे-पीछे से, उसके दायें-बायें से उसका नाम लेकर पुकारती कि कभी तो वो मेरी तरफ़ देखे, पर हमेशा निराशा ही हाथ लगती।

एक दिन अचानक मोबाइल में बजी रिंगटोन की तरफ़ उसने अपना सिर घुमाया। मेरी आँखों से आँसू की एक बूँद टपक पड़ी,

“ये म्यूजिक समझती है।” मैं मन ही मन बुदबुदाई।

बस उसी पल मुझे वो राह दिख गई थी, जिस पर मुझे आगे बढ़ते जाना था। मैंने ठान लिया था और मन ही मन दुहराया,

“मैं म्यूजिक को इसकी ज़िन्दगी बना कर छोड़ूँगी।”

बस उस दिन के बाद से जब भी मार्केट जाती, मैं अपनी कुहू के लिए कोई ना कोई म्यूजिक वाला खिलौना उठा लाती। म्यूजिकल ड्रम, ढोलक, सिंथेसाइजर, बाँसुरी और वो गाना गाने वाली गुड़िया, कितने ही तो खिलौने इकट्ठे हो गए थे उसके पास। वो कभी एक खिलौना उठाती, कभी दूसरा; दस-२ मिनट में तो मूड चेंज होता था हमारी गुड़िया रानी का।

समय धीरे-२ बीत रहा था। फ़िज़ियोथेरेपी ने अपना असर दिखाना शुरु कर दिया, अब वह अपने सहारे ५-१० मिनट बैठने लगी थी। होम्योपैथी से उसके समझने की शक्ति भी धीरे-२ बढ़ रही थी। ३ साल की होते-२ अब वह पूरी तरह अपने सहारे बैठने लगी।

एक दिन मैं उसे उसके खिलौनों के पास छोड़ कर किचन में खाना बनाने चली गई। कुछ देर बाद जब लौट कर कमरे में वापस आई, तो वो अपनी जगह पर नहीं थी। मेरा दिल जोर-२ से धड़कने लगा। पर अचानक मेरी नज़र कमरे के एक कोने पर गई; वो वहाँ पर बैठी रैक में से चप्पल, जूते निकाल-२ कर फ़ेंक रही थी। मेरी खुशी से लगभग चीख निकल गई थी,

“ये तो अपने-आप खिसकने भी लगी।”

शाम को जब मेरे पति घर आए, तो मैंने अपने हाथों से बनाए बेसन के लड्डू उनके सामने रखे; जब उन्होंने कारण पूछा तो मैंने मन्द-२ मुस्काते हुए सारी बात बताई। वो भी बहुत खुश हुए, पर उन्हें अफ़सोस था कि ये नज़ारा वो अपनी आँखों से नहीं देख पाए।

अब मेरे लिए नया माइल-स्टोन था, इसे इसके पैरों पर खड़ा करना। मैं अपनी नौकरी छोड़ चुकी थी, मेरे पति ने आर्थिक-ज़िम्मेदारी पूरी तरह से अपने कन्धों पर उठा ली थी। मैंने सब कुछ छोड़ कर अपना पूरा ध्यान अब कुहू पर केन्द्रित कर दिया था। २ साल की मेहनत के बाद मैं इसे इसके पैरों पर खड़ा कर पाई; अब तो इसने धीरे-२ चलना भी सीख लिया था। हालाँकि कदम डगमगाते थे, पर मुझे पता था जल्दी ही ये कमी भी दूर हो जाएगी।


            
                                                              ********


                                                                                                               ...क्रमश:


खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-३




बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-१








मेरे आँसू लगातार बहे जा रहे थे और मैं उन्हें रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रही थी, क्योंकि मैं इन आँसुओं में अपने उन सारे दु:खों, खीजों, अपमान, तंज और लोगों द्वारा दिए गए बेचारगी के एहसास को बहा देना चाहती थी, जो पिछले अनगिनत सालों में मैंने अपने दिल पर झेले थे। पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था, आज मेरी बेटी को ‘ग्रेमी अवार्ड’ मिला था; वही बेटी, जिसके पैदा होने के बाद से लगातार हर दूसरे व्यक्ति ने इसके मरने की दुआएँ माँगी थीं, ताकि मैं खुशी-२ जी सकूँ; पर मेरी खुशी तो मेरी बेटी में थी। आज उसने मेरी खुशी को मेरी पलकों पर सजा दिया था। एक सामान्य व्यक्ति के लिए ग्रेमी अवार्ड आकाश के तारे तोड़ने के समान होता है, फ़िर मेरी बेटी तो मानसिक रूप से विकलांग थी।

“ नन्दिनी, चलो तुम्हें भी स्टेज पर बुला रहे हैं,” मुझे खयालों में खोया देख मेरे पति ने मेरे कन्धे पकड़ कर मुझे हिलाया।

मैं अपने बहते आँसुओं को पोंछ कर मुस्कुराते हुए मंच की ओर बढ़ी और वहाँ पहुँच कर अपनी बेटी को चूमकर गले लगा लिया। पूरा हॉल एक बार फ़िर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

गाड़ी से होटल वापस लौटते हुए मेरा मन बार-२ अतीत के भँवर में हिचकोले खा रहा था। मेरे सामने हॉस्पीटल का वो दृश्य बार-२ घूम रहा था, जब मैं अपनी बेटी के जन्म के सात दिन बाद भी उसके अपनी गोद में दिए जाने का इन्तजार कर रही थी। उसे जन्म देने के बाद से ही NNICU में रखा गया था। तभी एक सीनियर रेजीडेण्ट डॉक्टर ने मेरे कमरे में प्रवेश किया और मुस्कुराते हुए पूछा,

“अब कैसी तबियत है आपकी?”

“मैं ठीक हूँ डॉक्टर, मेरी बेटी कैसी है? मैं उसे गोद में कब खिला पाऊँगी?” मेरा ध्यान मेरी बेटी से हट ही नहीं पा रहा था।

“वो अब पहले से बेहतर है। वैसे आपके कितने बच्चे और हैं?” डॉक्टर ने कुछ उत्सुकतावश पूछा।

“यही पहली है और आखिरी भी।” मैनें चहकते हुए जवाब दिया।

पर डॉक्टर के चेहरे की चमक अचानक खो गई और उन्होंने कुछ बुझे हुए स्वर में कहा,

“आपको ऐसे बच्चे के साथ इसके भाई/बहन के बारे में भी सोचना चाहिए।”

‘ऐसे बच्चे के साथ’ से क्या मतलब है आपका? क्या हुआ है मेरी बेटी को?” मैं लगभग चीखते हुए बिस्तर से उठी और काँपते हुए पास पड़े हुए सोफ़े पर गिर पड़ी।

“जन्म के समय उसके ब्रेन को प्रॉपर ऑक्सीजन नहीं मिल पाई, जिससे उसके ब्रेन का एक पार्ट डेमेज हो गया है। मेडिकल टर्म्स में इसे CP यानि ‘सेलेब्रल पैल्सी’ कहते हैं।”

“हो सकता है आपकी बेटी ज़िन्दगी में कभी चल और बैठ भी ना पाए, बोलना और समझना तो बहुत दूर की बात है।”

डॉक्टर बोले जा रही थी और मैं चेहरे पर बिना कोई भाव लिए उन्हें सुने जा रही थी। शब्द सिर्फ़ उनके मुँह से मेरे कान तक जा रहे थे, समझा तो मैंने उन्हें कुछ देर बाद था। जिसके साथ ही एक रुलाई भी मेरे अन्दर से फ़ूट पड़ी थी। बहुत कुछ था, जो एकसाथ मेरे अन्दर टूट गया था; मेरे सपने, मेरी आकांक्षाएँ और भी ना जाने कितना कुछ। बहुत देर तक मैं उस सोफ़े पर ऐसे ही बैठी रही।

अचानक ही मेरे अन्दर से ही आवाज़ आई,

“नहीं, मैं इस तरह हार नहीं मान सकती। अगर उस ईश्वर ने मेरी परीक्षा ही लेनी चाही है, तो मैं इस परीक्षा में भी सफ़ल होकर दिखा दूँगी। मैं इस तरह खुद को टूटने तो हरगिज़ नहीं दूँगी।”

कुछ देर बाद जब मेरे पति कमरे में आए, तो मुझे इस तरह सोफ़े पे बैठा देख कर शायद ये समझ गए कि मुझे सब पता चल चुका है, पर उन्होंने कुछ कहा नहीं; चुपचाप मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर मेरे पास ही बैठ गए, मैंने उनके कन्धे पर अपना सिर टिका दिया। फ़िर धीरे से पूछा,

“आपने मुझे बताया क्यों नहीं? खुद ही सारा दर्द चुपचाप सहते रहे। यहाँ तक कि अपने चेहरे से भी कुछ जाहिर नहीं होने दिया।”

“क्या कहता मैं और फ़िर जो हो गया, उसे बदला तो नहीं जा सकता ना? उस पर तुम्हारी हालत ऐसी नहीं थी कि तुम्हें कुछ बताया जाता। अब हम दोनों को साथ मिल कर ही इसकी ज़िन्दगी सँवारनी है।” मेरे पति बहुत ही शांत-भाव से मुझे समझा रहे थे। मैं उनके इसी गुण की तो कायल थी।

फ़िर उन्होंने मुझे सहारा देकर बिस्तर पर लिटा दिया और मेरे लिए गिलास में जूस निकालने लगे।


                                                              ********


                                                                                                                 .....क्रमश:


------------------------------------------


खुशी का साज़.. (कहानी) .. भाग-२



Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...