बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

नैतिक शिक्षा (लघु कथा)




आज स्कूल में बहुत चहल-पहल थी। लावण्या स्कूल में घुसते ही अपनी बड़ी-२ आँखों से चारों तरफ़ देख रही थी, पर फ़िर भी उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। चारों तरफ़ की तैयारियों को देख कर लगा तो उसे कि कोई विशेष बात है; पर दिमाग पर ज्यादा जोर ना देकर वो अपनी क्लास में चली गई। वहाँ भी किसी लड़की को कुछ नहीं पता था।

दूसरे पीरियड में नैतिक शिक्षा वाली टीचर ने क्लास में प्रवेश किया। क्लास में घुसते ही उन्होंने लावन्या सहित ३ लड़कियों को जो पढ़ने मे अच्छी मानी जाती थीं, खड़ा किया। फ़िर आगे कहना शुरू किया,

“किसी ने DM Office में शिकायत दर्ज़ की है कि इस स्कूल में छात्राओं से ‘बिल्डिंग फ़ीस’ के नाम पर मनमाने पैसे वसूल किए जा रहे हैं। अभी कुछ देर में वहाँ से कुछ लोग निरीक्षण के लिए आएँगे। प्रत्येक कक्षा से ३ छात्राओं को बुलाया जाएगा और उनसे केवल एक पर्ची पर हाँ या ना लिखने को कहा जाएगा। आप लोग वहाँ जाएँगी और पर्ची पर ‘नहीं’ लिख कर उसे वहाँ रखे बॉक्स में डाल देंगी।”

“लेकिन दीदी बिल्डिंग फ़ीस तो हमसे ली गई है।” लावण्या ने आश्चर्य और कौतूहल से पूँछा।

“तुम्हें बोर्ड-परीक्षा में बैठना है या नहीं?” टीचर पैर पटकते हुए चली गईं।

कुछ देर बाद लावण्या अन्य कई लड़कियों के साथ एक कमरे में थी। उसने सोच लिया था कि वो ‘हाँ’ ही लिखेगी; वैसे भी किसी को क्या पता चलेगा। तभी उसने देखा ‘नैतिक शिक्षा’ वाली वही टीचर उसके बगल में आके खड़ी हो गई हैं और वो तब तक वहीं खड़ी रहीं, जब तक उसने पर्ची पर बेमन से ‘नहीं’ लिख कर उसे बॉक्स में डाल नहीं दिया।

DM Office से आए हुए लोग ये कहकर वापस चले गए कि शायद किसी ने झूठी शिकायत की होगी।

आखिरी पीरियड ‘नैतिक शिक्षा’ का होता था। जिस पीरियड के लिए अन्य लड़कियाँ उदासीनता दिखाती थीं, क्योंकि उन्हें घर जाने की जल्दी होती थी; वहीं लावण्या हमेशा इस पीरियड के लिए उत्साहित रहती थी। पर ना जाने क्यों, आज उसके कदम उस क्लास में जाने के लिए उठ ही नहीं रहे थे...............!                                                   


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सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

मैं और मेरे पापा-१ (पापा की यादों का कोलाज़)




इससे पहले कि समय के विशालकाय पंजों में छटपटाते हुए मेरी याददाश्त दम तोड़ दे। पापा से जुड़ी हुई अपने मन की सुकोमल स्मृतियों को मैं अपने शब्दों के उपवन में सहेज लेना चाहती हूँ, जहाँ मील के पत्थर की भाँति जीवन के वे विटप खिले हैं, जिन्हें चाहे-अनचाहे मेरे कदमों ने पार किया है। कदम पीछे लौटना चाहते हैं, पर वक्त किसका हुआ है भला; हमें तो आगे ही बढ़ते जाना है, मुड़-२ कर पीछे देखते हुए.....


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वैसे तो मैं जब बहुत छोटी सी थी(शायद ९-१० साल की), तभी से कविताएँ लिखने की कोशिश किया करती थी। कवियित्री बनने का बड़ा शौक था बचपन से ही मुझे।
जब थोड़ी बड़ी हुई और कुछ कच्चा-पक्का लिखना शुरू किया, तो सबसे पहले ले जाकर पापा को दिखाती थी। और पापा.......... बस ..........‘लाल पेन’ लेकर बैठ जाते और ऊपर से नीचे तक उस पेज़ को रंग देते। उस पेज़ पर नीले से ज्यादा लाल रंग दिखता था। मैं अक्सर मुँह बना कर कहती.....“कभी तो तारीफ़ कर दिया करो”.. लेकिन ना मेरा उनके पास जाना छूटता और ना उनका गलतियाँ निकालना।

एक दिन मुझे भी शरारत सूझी। मैनें भी जावेद अख्तर जी की एक कविता उनके सामने ले जाकर रख दी, ये कह कर कि मैंने अभी लिखी है। उसमें भी उन्होंने अपनी आदत के मुताबिक गलतियाँ निकालना शुरू कर दिया। अभी वो चौथी लाइन पर ही पहुँचे थे कि मैंने खुश होकर उछलना शुरू कर दिया और हँसते हुये कहने लगी.....‘‘ये तो जावेद अख्तर की कविता है, इसका मतलब आप जानबूझकर गलतियाँ निकालते हैं।”
पर पापा तो पापा हैं ना, कहने लगे...“तो जावेद अख्तर कोई तोप है? मैं बहुत अच्छा एडिटर हूँ।” 

कितने खुश होते थे पापा मेरे सामने अपनी तारीफ़ करके और मैं भी उन्हें खुश देखकर खुश हो जाती थी।

ईश्वर करे वो जिस जहाँ में हों, खुश हों और हमारी यादों में हमेशा मुस्कुराते रहें.....

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मैं आज जिस रूप में भी आपके सामने हूँ, पूरी तरह से पापा की गढ़ी गई मूर्ति हूँ। बस इसमें रंग मैंने अपनी पसन्द के अनुसार भर लिए हैं। उनकी दिखाई राह पर जो एक बार चलना शुरू किया, तो कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उन्होंने हमेशा सच्चाई, ईमानदारी, समानता, सद्भाव की सीख दी। और उनके द्वारा दी गई ये शिक्षा किसी लेक्चर की तरह नहीं, बल्कि छोटे-२ उदाहरणों के रूप में हमारे सामने आई, जो हमारी ज़िन्दगी में से ही लिए गए थे। अध्यात्म की शिक्षा भी मैंने उन्हीं से पाई, ये भी जाना कि ईश्वर मंदिर-मस्जिद में नहीं, आत्मसाक्षात्कार से प्राप्त होता है।

आज से ३० साल पहले भी मैंने लड़के-लड़की का भेदभाव अपने घर में नहीं देखा, जबकि उस समय के समाज में ये काफ़ी गहराई से पैठ जमा चुका था। उन्होंने हमें स्वनिर्माण की प्रेरणा दी, चाहे वो व्यक्तित्व के सन्दर्भ में हो या ज़िन्दगी से जुड़े हुए निर्णयों की बात हो। उन्होंने ना कभी पढ़ने के लिए कहा और ना ही कभी खेलने से रोका; बस ये कहा कि जिस काम का जब मन हो तब करो, बस काम दोनों होने चाहिए। बल्कि मैं तो अक्सर इसलिए डाँट खाती थी कि लगातार और इतना क्यों पढ़ती हूँ और वे जबरदस्ती मुझे पकड़कर TV देखने के लिए ले जाते थे या कभी चाय बनाकर ले आते थे और खुद ही थोड़ी देर गपशप कर लेते थे।

उन्होंने हमें ये बताया कि सही क्या है और ये भी कि सही और गलत का फ़र्क कैसे करें, बाकी सब हम पर छोड़ दिया। घर के महत्वपूर्ण निर्णयों में भी वो हम बच्चों की राय को महत्व देते थे। शिक्षा को उन्होंने हमेशा प्राथमिकता पर रखा। एक बार हमें ३ वर्ष बड़े ही तंगहाली में गुजारने पड़े, उस समय भी उन्होंने हमारी पढ़ाई से सम्बन्धित किसी भी जरूरत को नज़रअन्दाज नहीं किया। उनका कहना था कि शिक्षा ही अन्त तक साथ निभाती है। व्यक्ति की काबिलियत ही इस बात से नापना चाहिए कि उसकी शिक्षा किस प्रकार की है।

बहुत कुछ है उनके बारे में कहने के लिए। कलम है कि रुकना ही नहीं चाहती और मन है कि मानता ही नहीं। पर फ़िर भी कहीं तो विराम देना ही होगा.....

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