रविवार, 7 जून 2015

मैं और मेरे पापा-३ (पापा की यादों का कोलाज़)



                          पापा के ६०वें जन्मदिन पर खींची गई फ़ोटो...


आज ७ जून को पापा का जन्मदिन है। अगर आज वो होते और मैं हमेशा की तरह सुबह-२ उन्हें फ़ोन करती, तो उनका पहला वाक्य यही होता, “अरे! मुझे तो याद ही नहीं था, किसी ने बताया भी नहीं।” अपने जन्मदिन पर भी पूरे दिन इन्तजार करने के बाद रात को जब खुद ही मैं फ़ोन करके बताती, तब भी वो ऊपर वाले वाक्य को ही रिपीट करते थे। ७ अंक (७,१६,२५ तारीख) को पैदा होने वाले अच्छे जीवन-साथी होते हैं, ये तो पता था; पर बहुत अच्छे पापा भी होते हैं, ये नहीं पता था।

इन गर्मियों में जैसे-२ पारा चढ़ रहा है, वैसे-२ पापा की यादों ने भी मेरे मन-मस्तिष्क में दस्तक देनी शुरू कर दी है। उन्हें गर्मी बहुत लगती थी या सच कहें तो उन्हें सभी मौसम बहुत परेशान करते थे, इसीलिए वो कहीं आते-जाते भी नहीं थे। अपना घर ही उन्हें सबसे प्यारा था। मैं भी उन्हीं पर गई हूँ, कहीं भी घूमना-फ़िरना मुझे पसन्द नहीं। शायद ये हम दोनों के ‘शनि’ महाराज के नक्षत्र में पैदा होने का फ़ल है। हाँ, तो मैं गर्मी की बात कर रही थी, गर्मी देवी उन्हें बहुत प्रताड़ित करती थीं और सजा मैं भुगतती थी। मैं रोज सुबह पूरे घर का पोंछा लगाती और वो रोज दोपहर को अपने कमरे में पानी भरकर उसे दाग-धब्बों वाला बना देते और उस पर तर्क ये कि चाहे मैं गर्मी से मर जाऊँ, पर तेरा कमरा चमकते रहना चाहिए। उस कमरे को वैसा छोड़ा भी नहीं जा सकता था, क्योंकि वो हमारे घर की ‘बैठक’ ( ड्राइंग-रूम ) थी। उनके लिए रोज नहाने के लिए हैण्डपम्प से ठण्डा पानी भी खींचना पड़ता था, वरना वो मेरे नहाने के पानी पर कब्जा कर लेते थे; बाकी लोग तो टंकी के गुनगुने पानी से नहा कर संतुष्ट हो जाते थे। .. :))

शर्बत से सम्बन्धित एक मजेदार किस्सा है, जिसे आप सब से शेयर करती हूँ। गर्मियों में उन्हें रोज़ कम-अस-कम ३-४ बार शर्बत पीना होता था, जो कोई मुश्किल काम नहीं था मेरे लिए; पर मुझे चीनी घोलने के लिए देर तक चम्मच हिलाना पसन्द नहीं था। मैंने सरलता के लिए एक आइडिया निकाला; शुगर-सिरप बनाकर, उसी में नींबू निचोड़ कर और बोतल में भरकर फ़्रिज़ में रख दिया। बस अब उसमें पानी भर मिलाना था और शर्बत तैयार। मैं बहुत खुश थी, पर मुझसे भी ज्यादा खुश पापा थे; कहने लगे, अब तो तेरी भी जरूरत नहीं, मैं खुद ही बना लूँगा। वैसे मुझे शाबासी भी मिली, इस आइडिया पर। पर... मेरी खुशी एक दिन भी नहीं टिक पाई, क्योंकि उन्होंने वो एक लीटर शुगर-सिरप एक दिन में ही खत्म कर दिया, १०-१५ गिलास शर्बत पीकर। पहले तो मैंने उन पर खूब गुस्सा किया, जी भर कर, फ़िर मन-मसोस कर एक डिब्बे में चीनी पीस कर रख दी। .. :((

वो अपने ( और हमारे भी ) शरीर के आराम का बहुत ध्यान रखते थे; उनका कहना था, ‘ऐसे रुपये कमाने का क्या फ़ायदा कि शरीर कष्ट में रहे।’ ऐसा नहीं कि वो आराम-तलब थे, बल्कि शायद इसलिए कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत काम किया था। हम लोगों के आराम में बाधा इसलिए नहीं पड़ने देते थे कि कहीं पढ़ाई बाधित ना हो। इन्वर्टर हमारे घर तब आ गया था, जब पहली बार हम उससे परिचित हुए थे, यानि करीब २० साल पहले; जिस समय वो काफ़ी मँहगा और मेन्टीनेंस ( देखभाल ) के मामले में काफ़ी दु:खी करने वाला था। चूँकि यू.पी. में बिजली बमुश्किल आती थी, इसलिए घर के हरेक व्यक्ति के लिए अलग-२ बैटरी वाला पंखा भी था।
कूलर का भी हमने ‘वो’ वाला वर्जन देखा था, जिसके अन्दर टेबल-फ़ैन रखकर चलाया जाता था। सबसे काबिले-तारीफ़ बात ये थी उस कूलर में कि पानी की सप्लाई के लिए कूलर के ऊपर बनी एक छेदों वाली ट्रे में हर १५ मिनट में २ मग पानी भर कर डालना पड़ता था। .. :))

ये सब सुन कर आप ये ना सोचें कि हम लोग बहुत पैसे वाले थे। मेरे पापा एक ‘ईमानदार’ सरकारी नौकर थे और इसलिए हम एक ‘निम्न मध्यमवर्गीय’ परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनके इन्हीं सब खर्चों को देखकर मम्मी अक्सर नाराज होकर गुस्सा करतीं, तो पापा का एक ‘निश्चित’ डायलॉग था, जो हर बार दुहराया जाता और मेरा ये मनपसन्द डायलॉग था.....
“जितने का खर्च नहीं हुआ, उतने का तो तुमने मेरा खून जला डाला...।” .. :))

पापा.....  पापा.....  पापा.....
यादें.....  यादें.....  यादें.....
ज़िन्दगी खत्म हो जायेगी मेरी, पर आपकी यादें नहीं.....

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मंगलवार, 19 मई 2015

रुका हुआ सा दर्द...! (कहानी)




अचानक दरवाजे की घंटी बजी.....

वो पिछले एक घण्टे से सोने का प्रयास कर रही थी; पर थकान की वजह से शायद नींद नहीं आ रही थी।

पोस्टमैन होगा शायद, कहकर वो अनमने ढंग से दरवाजे की ओर बढ़ी।

दरवाजा खोलकर देखा। पोस्टमैन ही था। एक लिफ़ाफ़ा डालकर गया था। उसने उलट-पुलट कर देखा, उस पर भेजने वाले का कहीं कोई जिक्र नहीं था। हालाँकि पत्र उसके पिता के नाम था, पर वो चाहकर भी उसे खोलने से खुद को रोक ना पाई।

जैसे ही उसने लिफ़ाफ़ा खोला, अन्दर से एक तस्वीर निकली, जिसे देखकर उसका चेहरा तमतमा गया। गुस्से में आकर वो तस्वीर फ़ाड़ना ही चाहती थी कि कुछ सोच कर रुक गई। आखिर कितनी तस्वीरें फ़ाड़ेगी वो। क्या ऐसा करने से वो रुक जाएगा, जिसके होने मात्र की कल्पना से ही वो सिहर जाती है।

रह-रह कर उसे एक ही बात कचोटती है; क्या एक पुरुष के लिए स्त्री मात्र उसका घर सँभालने वाली और बच्चे पैदा करने वाली मशीन भर है? क्या पति की शारीरिक और मानसिक जरूरतों का ध्यान रखना केवल स्त्री का फ़र्ज़ है? क्या प्यार के मायने केवल औरत के लिए हैं?
क्या, क्या और ना जाने कितने क्या? उसका सिर इस भयंकर गर्मी में फ़टने को हो आया। वह पानी पीने रसोई में जाती है।

वहाँ मौजूद माँ इशारे में उससे परेशान होने की वजह पूछती है। जब से माँ को पैरालिसिस का अटैक हुआ है, उसका दायाँ हाथ और पैर बिल्कुल काम नहीं करता। हालाँकि वो खुद को घसीट-२ कर अपने सारे काम कर लेती है। किसी को अपनी वजह से परेशान करना सीखा ही नहीं जो उसने। यही वजह थी कि पिता की दूसरी शादी की बात पर उसने चुपचाप सहमति में सिर हिला दिया था। हालाँकि केतकी जानती थी कि उस दिन के बाद से माँ का मन हर रोज कितना टूटता है।

माँ ने भले ही इस बात पर सहमति दे दी थी, पर केतकी रोज कितना लड़ती थी अपने पिता से इसके विरोध में। पर उन्होंने तो जैसे जिद ही ठान ली थी दूसरी शादी की।

अब कैसे बताती माँ को कि जिस लिफ़ाफ़े को वो फ़ेंक कर आई है, उसमें पिता की दूसरी शादी का रिश्ता आया है। वो पिता जिसके सुख की खातिर माँ ने खुद को होम कर दिया, पर जो आज भी इस बात से बेखबर हैं कि किस तरह माँ उनके मुँह से दो प्यार भरे बोल सुनने को तरसती रहती है।

केतकी के मन में भले ही हाहाकार मचा हुआ है, पर वो अन्दर ही अन्दर एक निर्णय ले चुकी है। भरी दोपहर में वो बैग टाँगकर निकल पड़ती है, खुद के और माँ के लिए एक नए आशियाने की तलाश में..........!

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शनिवार, 11 अप्रैल 2015

मैं और मेरे पापा-२ (पापा की यादों का कोलाज़)






आज की कड़ी में बात करते हैं उन गलतियों की, जो कभी मेरे द्वारा, तो कभी पापा के द्वारा अनजाने में की गईं और हम दोनों ही बहुत बाद तक उन्हें लेकर पछताते रहे; क्योंकि दोनों ही एक-दूसरे को उन गलतियों की वजह से ब्लैकमेल करते थे। पर प्यार तो फ़िर भी बरकरार रहा ना.......... :))

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मैंने ज़िन्दगी में एक बहुत बड़ी गलती की, अपने पापा की राइटिंग की कॉपी करके बिल्कुल उनके जैसा लिखना सीख लेना। .. :))

वैसे उनकी राइटिंग बहुत सुन्दर थी, जिसकी वजह से आज भी मुझे अक्सर तारीफ़ के शब्द उपहार में मिल जाते हैं।

पर.......... उसके बाद से उनके ऑफ़िस का आधे से ज्यादा काम मुझे ही करना पड़ता था, जिसे वो अक्सर घर ले आते थे, मुझसे करवाने के लिए..... :((

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एक और गलती की मैंने, जो उन्हें (कभी-२) खुश करने के लिए ‘उनकी पसन्द के अनुसार’ एकदम परफ़ेक्ट चाय बनाना सीख लिया।

पर अब तो रोज ही दिन में १५ बार चाय बनानी पड़ती थी और १५ बार ही गर्म भी करनी पड़ती थी (क्योंकि उन्हें चाय बनवाने के लिए तो चाय की तलब लगती थी, पर पीना याद नहीं रहता था .. :)) )

और हाँ, बस इसीलिए मैंने उनके साथ देर रात की पुरानी फ़िल्में देखना बन्द कर दिया था, क्योंकि जबरदस्त नींद आने के बावज़ूद मैं जैसे-तैसे फ़िल्म खत्म होने तक रुक पाती थी। पर जैसे ही सोने के लिए जाने लगती, वो चाय की फ़रमाइश कर देते। .. :((

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एक जबरदस्त गलती पापा ने भी की। मुझे सजा देने के लिए जबरदस्ती पकड़कर गणित पढ़ाने की।

एक बार जब मैं ७वीं कक्षा में थी, पता नहीं किस बात पर नाराज़ होकर उन्होंने फ़रमान सुनाया, “जाओ, अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित की किताबें लेकर आओ।” और फ़िर मुझे बैठाकर २-३ घण्टे पढ़ाते रहे।

पर पापा ने तब शायद सोचा भी नहीं होगा कि वो अपनी ज़िन्दगी की महानतम्‌ गलती करने जा रहे हैं; क्योंकि उसके बाद मैं अक्सर किताबें लेकर उनके पास पहुँच जाती थी और वो मन-मसोसकर मुझे पढ़ाने बैठ जाते थे। इस चक्कर में उनके टी.वी. के कई कार्यक्रम छूट जाते थे (दरअसल उन्हें TV देखने का बहुत शौक था, इससे सम्बन्धित भी कई रोचक कहानियाँ हैं, जो फ़िर कभी)

कई बार तो तरह-२ के बहाने भी बनाते थे, पर मैं तो मैं हूँ ना, धुन की पक्की। वैसे वो पढ़ाते बड़ा कमाल थे और गणित की तो बात ही मत पूछो। उनके सामने सारे अंक जमूरे बन जाते थे और गणित सर्कस, फ़िर जो मजा आता था कि पूछो मत। इसी वजह से मेरी गणित इतनी अच्छी है; हाँ... ये बात और है कि मैं अक्सर इसका श्रेय अपनी कुण्डली में ‘बुध’ की अच्छी प्लेसमेंट को दे देती हूँ..... ;)

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बुधवार, 11 मार्च 2015

एक अदनी सी गाँधी की चहेती का मि. काटजू को खुला पत्र...!



मि. काटजू,

आप अक्सर अपने बयानों से विवादों में आते हैं और लोगों से भी आपको प्रतिक्रिया मिलती है, अच्छी हो या बुरी; क्योंकि आप उच्च पदस्थ हैं। अब आपने गाँधी को निशाना बनाया है, लोग अक्सर बनाते हैं और सब चुप रहते हैं। मैंने ही एक बार लिखा था कि “गाँधी के बारे में लोग उतना ही जानते हैं, जितना लोगों ने लिखा, जिसमें नकारात्मकता ही अधिक थी एवं सच्चे और ईमानदार लोग (लेखक) हमेशा की तरह चुप रहे।”

मैं ना तो खुद को बहुत बड़ा लेखक मानती हूँ और न ही मुझे ये लगता है कि मेरे लिखने का लोगों पर कोई खास असर पड़ेगा, क्योंकि लोग तो सिर्फ़ उच्च पदस्थ या प्रभावशील लोगों को ही संज्ञान में लेते हैं; पर मैं फ़िर भी चुप नहीं रह सकती। मैं गाँधी जी की अदनी सी चहेती उन्हीं को देख-सुन कर बड़ी हुई हूँ। मैं ये नहीं कहती कि उनमें कोई कमियाँ नहीं थीं, पर उन्होंने जो किया, वो एक आम इन्सान के वश की बात तो कतई नहीं थी।

परन्तु जिन कमियों की ओर आपने उँगली उठाई है, उन पर मुझे सख्त ऐतराज है और मैं यह कहने पर विवश हूँ कि आप गाँधी को बिल्कुल नहीं जानते। कहीं से कुछ पढ़कर उसका मनमाना अर्थ निकालना कम से कम आप जैसे उच्च पदासीन व्यक्ति को तो कतई शोभा नहीं देता। मैंने उन्हें जितना पढ़ा और जाना है, उस दृष्टिकोंण से मैं अपनी कुछ बातें रख रही हूँ, पता नहीं आपको समझ आएँगी या नहीं, परन्तु जैसे आप मजबूर हैं, मैं भी मजबूर हूँ।

किसी भी लड़ाई को २ तरीकों से जीता जा सकता है या तो अपने विरोधियों को शारीरिक रूप से परास्त कर दो या उन्हें मानसिक रूप से पस्त कर दो। और हम सभी ये अच्छी तरह से जानते हैं कि अंग्रेजों की आधुनिक शस्त्रों से लैस विशाल सेना को शारीरिक रूप से परास्त करना आम भारतीय नागरिकों के लिए असम्भव था। इसलिए गाँधीजी ने दूसरा रास्ता चुना, अंग्रेजों को आत्मबल के द्वारा मानसिक रूप से तोड़ने का और जिसमें वे सफ़ल भी रहे। आम सी दिखने वाली भारतीय जनता ने अंग्रेजों की विशाल सेना को अपने आध्यात्मिक बल से खदेड़ दिया; आध्यात्मिक चेतना / बल, जो हमेशा से भारत की शान रहा है। हमें हमेशा वही राह चुननी चाहिए, जो हमारी ताकत हो, न कि हमारी कमजोरी।

आप अकबर को धर्म-सहिष्णु कहकर गाँधीजी की आलोचना सिर्फ़ इसलिए कर रहे हैं कि वो एक कट्टर हिन्दू हैं और हिन्दू मान्यताओं की वकालत करते हैं, पर शायद आप नहीं जानते कि गाँधीजी की सबसे ज्यादा आलोचना इसी बात पर की जाती है कि वे मुसलमानों के पक्षधर थे और मुसलमानों के हित में ही सोचते थे। उनके इसी मुस्लिम-प्रेम से आहत होकर एक कट्टर हिन्दू ने उन्हें गोली तक मार दी और आप कहते हैं वो साम्प्रदायिक थे। कोई उन्हें हिन्दू उपासक कहता है, कोई मुस्लिम-प्रेमी और वो मसीहा इन दोनों को ही गले लगाए हुए इस नाशुक्री दुनिया से विदा हो गया। गाँधीजी के ही शब्दों में,
“हिन्दू और मुस्लिम मेरी दो आँखें हैं।”

आप का कहना है कि गाँधीजी के हिन्दुत्ववादी विचारों से निराश होकर ही मुसलमान ‘मुस्लिम-लीग’ का गठन करने को प्रेरित हुए, पर शायद आप इस तथ्य से परिचित नहीं कि गाँधीजी के भारत लौटने और स्वतन्त्रता-संग्राम में भाग लेने से ७ साल पहले ही मुसलमान आगा खाँ नेतृत्व में ‘मुस्लिम-लीग’ का गठन कर चुके थे। ‘फ़ूट डालो और राज करो’ की नीति को अंग्रेजों ने क्यों अपनाया, इसकी वजह मैं आपको बताती हूँ। गाँधीजी के नेतृत्व में पूरा देश सारे भेदभाव भुला कर एकसाथ एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध डट कर खड़ा था, उनकी इस संगठित शक्ति को देखकर अंग्रेजी सत्ता पत्ते की तरह काँप गई और उन्हें बस यही ख्याल आया कि इन्हें एक-दूसरे से अलग किए बिना भारत में टिके रहना असम्भव है। अंग्रेजों को इनमें फ़ूट डालने का सबसे सरल तरीका धार्मिक आधार पर भेदभाव लगा। हम भारतीय बेचारे तो आज भी ये नहीं जानते कि जिस तरह आध्यात्मिकता हमारी सबसे बड़ी ताकत है, उसी तरह धार्मिकता हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। जिस दिन हम ये जान गए, उस दिन सारे विश्व में हमारी पताका फ़हराएगी।

वैसे जिस ‘धर्म’ को राजनीति में प्रवेश कराने की बात गाँधी जी ने कही (जिसकी वजह से आपने उन्हें ‘ब्रिटिश एजेन्ट’ तक कह दिया) उसके मर्म को समझना आपके वश की बात नहीं। गाँधीजी के ही शब्दों में ज़रा एक बानगी देखिए,
“धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। जो धर्म को राजनीति से अलग करने के पक्षधर हैं, वो धर्म का सही मर्म नहीं जानते। धर्म ‘सत्य’ से किसी भी रूप में विलग नहीं है और सत्य के बिना राजनीति कदाचित् असम्भव है।”

आपकी इस बात पर तो मुझे हँसी आ गई कि हम एडोल्फ़ हिटलर की वजह से स्वतन्त्र हुए। चूँकि जर्मनी ने इंग्लैण्ड को द्वितीय विश्व-युद्ध में कमजोर कर दिया, इसलिए अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। पर जो बात मेरे गले से नहीं उतर रही, वो ये कि उनके यहाँ बने रहने में क्या परेशानी थी, क्योंकि आपके नजरिये से तो न तो गाँधीजी ही जनता के साथ मिलकर कुछ कर पा रहे थे और न ही ये शस्त्र-युद्ध था कि अब इंग्लैंड कमजोर हो गई, न ही उपवास और पदयात्रा से कुछ होने वाला था; फ़िर चले क्यों गए? आखिर वजह क्या थी?

मैं आपको इसका जवाब देती हूँ, किसी व्यक्ति को आप तभी गुलामी की जंजीरों में जकड़ सकते हैं, जब वो मन से आपकी गुलामी स्वीकार कर ले। एक बार व्यक्ति ये जंजीरें तोड़ दे, फ़िर चाहे वो शारीरिक रूप से कितना ही कमजोर क्यों न हो, आप उसे गुलाम नहीं बना सकते। गाँधीजी के योगदान को जो नहीं समझ पाते, वो ये समझ लें कि ये गाँधी ही थे, जिन्होंने लोगों के मन से गुलामी के बन्धन को तोड़ा, उन्हे ये विश्वास दिलाया कि एकजुटता में कितनी ताकत होती है और भारत की जनता को पूरे आत्मबल के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े होने का साहस दिया, जो और किसी के वश की बात तो बिल्कुल नहीं थी।

बस यही गाँधी की कहानी है..........!

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बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

नैतिक शिक्षा (लघु कथा)




आज स्कूल में बहुत चहल-पहल थी। लावण्या स्कूल में घुसते ही अपनी बड़ी-२ आँखों से चारों तरफ़ देख रही थी, पर फ़िर भी उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। चारों तरफ़ की तैयारियों को देख कर लगा तो उसे कि कोई विशेष बात है; पर दिमाग पर ज्यादा जोर ना देकर वो अपनी क्लास में चली गई। वहाँ भी किसी लड़की को कुछ नहीं पता था।

दूसरे पीरियड में नैतिक शिक्षा वाली टीचर ने क्लास में प्रवेश किया। क्लास में घुसते ही उन्होंने लावन्या सहित ३ लड़कियों को जो पढ़ने मे अच्छी मानी जाती थीं, खड़ा किया। फ़िर आगे कहना शुरू किया,

“किसी ने DM Office में शिकायत दर्ज़ की है कि इस स्कूल में छात्राओं से ‘बिल्डिंग फ़ीस’ के नाम पर मनमाने पैसे वसूल किए जा रहे हैं। अभी कुछ देर में वहाँ से कुछ लोग निरीक्षण के लिए आएँगे। प्रत्येक कक्षा से ३ छात्राओं को बुलाया जाएगा और उनसे केवल एक पर्ची पर हाँ या ना लिखने को कहा जाएगा। आप लोग वहाँ जाएँगी और पर्ची पर ‘नहीं’ लिख कर उसे वहाँ रखे बॉक्स में डाल देंगी।”

“लेकिन दीदी बिल्डिंग फ़ीस तो हमसे ली गई है।” लावण्या ने आश्चर्य और कौतूहल से पूँछा।

“तुम्हें बोर्ड-परीक्षा में बैठना है या नहीं?” टीचर पैर पटकते हुए चली गईं।

कुछ देर बाद लावण्या अन्य कई लड़कियों के साथ एक कमरे में थी। उसने सोच लिया था कि वो ‘हाँ’ ही लिखेगी; वैसे भी किसी को क्या पता चलेगा। तभी उसने देखा ‘नैतिक शिक्षा’ वाली वही टीचर उसके बगल में आके खड़ी हो गई हैं और वो तब तक वहीं खड़ी रहीं, जब तक उसने पर्ची पर बेमन से ‘नहीं’ लिख कर उसे बॉक्स में डाल नहीं दिया।

DM Office से आए हुए लोग ये कहकर वापस चले गए कि शायद किसी ने झूठी शिकायत की होगी।

आखिरी पीरियड ‘नैतिक शिक्षा’ का होता था। जिस पीरियड के लिए अन्य लड़कियाँ उदासीनता दिखाती थीं, क्योंकि उन्हें घर जाने की जल्दी होती थी; वहीं लावण्या हमेशा इस पीरियड के लिए उत्साहित रहती थी। पर ना जाने क्यों, आज उसके कदम उस क्लास में जाने के लिए उठ ही नहीं रहे थे...............!                                                   


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सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

मैं और मेरे पापा-१ (पापा की यादों का कोलाज़)




इससे पहले कि समय के विशालकाय पंजों में छटपटाते हुए मेरी याददाश्त दम तोड़ दे। पापा से जुड़ी हुई अपने मन की सुकोमल स्मृतियों को मैं अपने शब्दों के उपवन में सहेज लेना चाहती हूँ, जहाँ मील के पत्थर की भाँति जीवन के वे विटप खिले हैं, जिन्हें चाहे-अनचाहे मेरे कदमों ने पार किया है। कदम पीछे लौटना चाहते हैं, पर वक्त किसका हुआ है भला; हमें तो आगे ही बढ़ते जाना है, मुड़-२ कर पीछे देखते हुए.....


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वैसे तो मैं जब बहुत छोटी सी थी(शायद ९-१० साल की), तभी से कविताएँ लिखने की कोशिश किया करती थी। कवियित्री बनने का बड़ा शौक था बचपन से ही मुझे।
जब थोड़ी बड़ी हुई और कुछ कच्चा-पक्का लिखना शुरू किया, तो सबसे पहले ले जाकर पापा को दिखाती थी। और पापा.......... बस ..........‘लाल पेन’ लेकर बैठ जाते और ऊपर से नीचे तक उस पेज़ को रंग देते। उस पेज़ पर नीले से ज्यादा लाल रंग दिखता था। मैं अक्सर मुँह बना कर कहती.....“कभी तो तारीफ़ कर दिया करो”.. लेकिन ना मेरा उनके पास जाना छूटता और ना उनका गलतियाँ निकालना।

एक दिन मुझे भी शरारत सूझी। मैनें भी जावेद अख्तर जी की एक कविता उनके सामने ले जाकर रख दी, ये कह कर कि मैंने अभी लिखी है। उसमें भी उन्होंने अपनी आदत के मुताबिक गलतियाँ निकालना शुरू कर दिया। अभी वो चौथी लाइन पर ही पहुँचे थे कि मैंने खुश होकर उछलना शुरू कर दिया और हँसते हुये कहने लगी.....‘‘ये तो जावेद अख्तर की कविता है, इसका मतलब आप जानबूझकर गलतियाँ निकालते हैं।”
पर पापा तो पापा हैं ना, कहने लगे...“तो जावेद अख्तर कोई तोप है? मैं बहुत अच्छा एडिटर हूँ।” 

कितने खुश होते थे पापा मेरे सामने अपनी तारीफ़ करके और मैं भी उन्हें खुश देखकर खुश हो जाती थी।

ईश्वर करे वो जिस जहाँ में हों, खुश हों और हमारी यादों में हमेशा मुस्कुराते रहें.....

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मैं आज जिस रूप में भी आपके सामने हूँ, पूरी तरह से पापा की गढ़ी गई मूर्ति हूँ। बस इसमें रंग मैंने अपनी पसन्द के अनुसार भर लिए हैं। उनकी दिखाई राह पर जो एक बार चलना शुरू किया, तो कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उन्होंने हमेशा सच्चाई, ईमानदारी, समानता, सद्भाव की सीख दी। और उनके द्वारा दी गई ये शिक्षा किसी लेक्चर की तरह नहीं, बल्कि छोटे-२ उदाहरणों के रूप में हमारे सामने आई, जो हमारी ज़िन्दगी में से ही लिए गए थे। अध्यात्म की शिक्षा भी मैंने उन्हीं से पाई, ये भी जाना कि ईश्वर मंदिर-मस्जिद में नहीं, आत्मसाक्षात्कार से प्राप्त होता है।

आज से ३० साल पहले भी मैंने लड़के-लड़की का भेदभाव अपने घर में नहीं देखा, जबकि उस समय के समाज में ये काफ़ी गहराई से पैठ जमा चुका था। उन्होंने हमें स्वनिर्माण की प्रेरणा दी, चाहे वो व्यक्तित्व के सन्दर्भ में हो या ज़िन्दगी से जुड़े हुए निर्णयों की बात हो। उन्होंने ना कभी पढ़ने के लिए कहा और ना ही कभी खेलने से रोका; बस ये कहा कि जिस काम का जब मन हो तब करो, बस काम दोनों होने चाहिए। बल्कि मैं तो अक्सर इसलिए डाँट खाती थी कि लगातार और इतना क्यों पढ़ती हूँ और वे जबरदस्ती मुझे पकड़कर TV देखने के लिए ले जाते थे या कभी चाय बनाकर ले आते थे और खुद ही थोड़ी देर गपशप कर लेते थे।

उन्होंने हमें ये बताया कि सही क्या है और ये भी कि सही और गलत का फ़र्क कैसे करें, बाकी सब हम पर छोड़ दिया। घर के महत्वपूर्ण निर्णयों में भी वो हम बच्चों की राय को महत्व देते थे। शिक्षा को उन्होंने हमेशा प्राथमिकता पर रखा। एक बार हमें ३ वर्ष बड़े ही तंगहाली में गुजारने पड़े, उस समय भी उन्होंने हमारी पढ़ाई से सम्बन्धित किसी भी जरूरत को नज़रअन्दाज नहीं किया। उनका कहना था कि शिक्षा ही अन्त तक साथ निभाती है। व्यक्ति की काबिलियत ही इस बात से नापना चाहिए कि उसकी शिक्षा किस प्रकार की है।

बहुत कुछ है उनके बारे में कहने के लिए। कलम है कि रुकना ही नहीं चाहती और मन है कि मानता ही नहीं। पर फ़िर भी कहीं तो विराम देना ही होगा.....

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