रविवार, 16 मार्च 2014

होली में मज़हब का रंग!






आज अपनी मुस्लिम कामवाली से होली खेलने के बारे में पूछने पर जो जवाब मिला, वो दिमाग ‘सुन्न’ कर देने वाला था।

जब मैंने पूछा कि जब हम खुशी-२ ईद मनाते हैं, तो तुम लोग होली क्यों नहीं मनाते?

ये सुनकर उसके चेहरे के भाव बिगड़े और थोड़ा चिढ़कर बोली:

‘आप लोग हमारे ‘हुसैन’ के ‘खून’ से होली खेलते हो।’

मैं सन्न रह गई, इस जवाब की तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी।

मैंने पूछा, तुमसे ऐसा किसने कहा?

‘हमारी ‘कुरान’ में लिखा है’, जवाब मिला।

‘तुमने ‘कुरान’ पढ़ी है?’

‘नहीं.... हमारे लोगों ने बताया है।’

फ़िर मैंने उसे बैठाकर ‘प्रहलाद और होलिका’ की कथा सुनाई तथा हिन्दुओं के द्वारा होली मनाये जाने का कारण बताया। पता नहीं, वो मेरे जवाब से कितना सन्तुष्ट हुई।

मेरे मन की बेचैनी अभी भी समाप्त नहीं हुई है। क्या दे रहे हैं हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को? एक-दूसरे के प्रति नफ़रत, वो भी धर्म के नाम पर झूठी बातें फ़ैलाकर। हमारी सहिष्णुता और सर्व-धर्म-समभाव की भावना तो जाने कहाँ लुप्त हो गई।

‘धर्म’ उस ईश्वर / अल्लाह तक पहुँचने के मार्ग भर हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं। कृपया आप इन्हें अपने जीने और मरने की वजह मत बनाइए।

आइए इस होली पर हम सारे बैर-भाव भूल कर हिन्दु और मुस्लिम धर्मों को आपस में गले मिला दें। ( मैंने सिर्फ़ दो धर्मों का उल्लेख इसलिए किया है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में इनके बीच की खाई निरन्तर बढ़ती जा रही है। आप इसे अन्यथा न लें। )

यही हमारी इस ‘होली’ पर एक-दूसरे के प्रति सच्ची शुभकामनाएँ होंगी।

शनिवार, 8 मार्च 2014

क्यों ? सिर्फ़ एक ‘शरीर’ है स्त्री !






ये लेख मैंने १६ दिसम्बर २०१२ की घटना के बाद लिखा था, लेकिन उस समय चाह कर भी मैं इसे पोस्ट नहीं कर पाई; क्योंकि शायद तब लोग इस लेख की आत्मा को समझ ही नहीं पाते। आज ८ मार्च को ‘विश्व महिला दिवस’ के अवसर पर मन में कुछ आशाएँ लेकर इस लेख को पोस्ट कर रही हूँ और ये आशाएँ आप लोगों से हैं कि ये लेख सिर्फ़ ‘लेख भर ही रहकर’ न रह जाए।

एक और बलात्कार.....! ३ दिनों से लोगों में गुस्सा उबल रहा है और आक्रोश फ़ूट-२ कर बाहर आ रहा है। पर ये कितने दिनों तक और रहेगा, बस २-४ दिन और; फ़िर सब शान्त हो जाएगा। फ़िर लोग Discuss करने लगेंगे कि शाम को डिनर के लिए कहाँ जाया जाए और कौन सी फ़िल्म देखी जाए। वैसे इन तीन दिनों में जो बात जोर-शोर से उठी है, वो ये कि इन दरिन्दों को फ़ाँसी दी जाए, या सरेआम फ़ाँसी पर लटका दिया जाए। सभी लोग इस समस्या के उथले स्तर पर बात कर रहे हैं और उथले ही समाधान सुझा रहे हैं। किसी ने भी समस्या की गहराई में जा कर सोचने और विचार करने की कोशिश नहीं की।

क्या कभी किसी ने सोचा कि एक पुरुष के मन में किसी स्त्री को देखकर उसे भोगने का विचार आता ही क्यों है? इस सवाल का जवाब हमारे समाज की सोच की जड़ों में ही है। समाज ने स्त्री को एक भोग्य-वस्तु बना कर रख दिया है; उसे एक शरीर से अधिक कुछ समझा ही नहीं, जिसमें मन और आत्मा तो मानो होते ही नहीं। समाज की नजर में स्त्री का जन्म ही पुरुष की सेवा करने और बच्चे पैदा करने के लिए हुआ। इससे अधिक ना उसके बारे में कुछ सोचा जाता है और न ही सोचने की जरूरत समझी जाती है।

मैं जानती हूँ कि मेरी ये बातें आप में से कई लोगों को ये कहने के लिए मजबूर कर रही होंगी कि आप पता नहीं किस दुनियां में रहती हैं। आज की नारी कितना पढ़-लिख गई है, पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिला कर चल रही है। आज नारी आत्मनिर्भर और स्वतन्त्र है। तो मैं उन लोगों ( पुरुषों और स्त्रियों ) से ये पूछना चाहती हूँ कि क्या नारी वाकई स्वतन्त्र है? इस विषय पर मैं पहले भी एक लेख ‘नारी स्वातंत्र्य के असली मायने’ लिख चुकी हूँ और जिस पर मुझे प्रतिक्रियाएँ भी काफ़ी उत्साहजनक प्राप्त हुईं। आज की नारी सिर्फ़ इस खुशफ़हमी में जी रही है कि वो प्रगतिशील एवं स्वतन्त्र है, जबकि वास्तविक स्थिति कुछ और ही है।

जिस बलात्कार पर हम इतना गुस्सा दिखा रहे हैं, क्या इस समस्या के दूसरे पहलू पर कभी हमारा ध्यान गया है? क्या एक पति द्वारा पत्नी के साथ की गई जबरदस्ती बलात्कार की श्रेणी में नहीं आती? क्या सिर्फ़ अग्नि के ७ फ़ेरे ले लेने से एक पुरुष को एक स्त्री को भोगने का अधिकार मिल जाता है? क्या उस स्त्री का मन नहीं टूटता? क्या उस स्त्री की आत्मा चीत्कार नहीं करती? आज घरेलू-हिंसा तो जैसे एक आम-बात हो गई है। आखिर क्या है, जो एक पुरुष को स्त्री को कुचलने और स्त्री को चुप रहने को विवश करता है। वो है हमारे समाज की सोच, जो समाज की जड़ों में ही कहीं गहरे पैठ गई है। जिसने स्त्री के शरीर को ही उसकी ताकत बना दिया है, जिसमें दिमाग की जरूरत तो शायद होती ही नहीं। और जहाँ तक एक स्त्री की बात है, उसने काफ़ी हद तक इसे सच मान भी लिया है।

कहते हैं फ़िल्में समाज का आईना होती हैं; पर आज कितनी फ़िल्में हैं, जो महिला प्रधान होती हैं। कुछ हो न हो, पर फ़िल्म में एक आइटम डांस जरूर होना चाहिए। बड़ी से बड़ी अभिनेत्री भी एक आइटम डांस करने के लिए उत्साहित रहती है। खुद एक स्त्री भी अपने शरीर को ही अपनी ताकत मानने लगी है, जिसको सजाने-सँवारने में ही उसका पूरा ध्यान रहता है। भूखा तक मरना मंजूर है उन्हें कि कहीं फ़िगर ना खराब हो जाए। आम घरों में बचपन से ही लड़कियों के घी-दूध पर रोक लगा दी जाती है; एक तो इसलिए कि उन्हें इसकी जरूरत ही नहीं, दूसरे इसलिए कि अगर मोटी हो गई तो शादी कैसे होगी। कभी माँ-बाप ने अपनी बेटी से कहा है कि बेटी अगर पढ़ेगी नहीं तो तेरी शादी कैसे होगी। शायद वो भी जानते हैं कि शादी के लिए लड़के वाले बुद्धिमत्ता नहीं, सुन्दरता देखते हैं। अभी हाल में ही एक वाकया देखने में आया कि एक लड़की का पिता कह रहा था कि डॉक्टर साब इसका चश्मा उतरवा दो, वरना इसकी शादी नहीं हो पाएगी और अक्सर तो लड़कियों का चश्मा बनवाया ही नहीं जाता, भले ही उन्हें देखने में कितनी परेशानी क्यों न हो? समाज ने लड़कियों को एक शो-पीस बना कर रख दिया है, जिसके ना तो दिल होता है और ना ही दिमाग।

जब तक हम स्त्री को एक शरीर से आगे जाकर इन्सान की श्रेणी में नहीं लाएँगे, उसके प्रति मन में आदर और सम्मान का भाव नहीं लाएँगे, तब तक इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं। पहल स्त्रियों को ही करनी होगी, सिर्फ़ स्वतन्त्रता का आवरण ओढ़ने से काम नहीं चलेगा, उन्हें वास्तविक रूप में मजबूत बनना होगा। पर इसका मतलब ये नहीं कि मैं लज्जा, सहनशीलता, धैर्य आदि स्त्री गुणों का सम्मान नहीं करती; बस इतना चाहती हूँ कि इन्हें अपनी ताकत बनाएँ, कमजोरी नहीं। अपनी बात को रखने का हौसला रखें और अत्याचार के समक्ष सिर ना झुकाएँ।

जिस दिन समाज में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ का विचार प्रवाहमान हो जाएगा, उस दिन ये समस्याएँ स्वत: समाप्त हो जाएँगी।

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