मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

लप्रेक (लघु प्रेम कथा)






वो रोता बहुत था और अक्सर ही बरबस उन्हें रोकने की कोशिश के बावजूद आँसू उसकी आँखों में छलक ही आते थे। एक दिन रोते-२ परिमल, पीहू के चेहरे को अपने दोनों हाथों में थाम कर पूँछने लगा,
‘जब तुम मेरे साथ हो, तो मुझे इतना रोना क्यों आता है?’

जवाब में पीहू उसके चेहरे को पास ला के अपने लबों से उन छोटी-२ बूँदों को इस तरह उठाती, जैसे कोई बासंती सुबह में बिखरी ओस की बूँदों को इस तरह सहेज रहा हो, मानो सारी दुनिया ही अपनी मुट्ठी में भर लेने का एहसास हो।

ये देखकर परिमल आँखों ही आँखों में उसके ऐसा करने की वजह पूँछता, तो पीहू शरारत भरी मुस्कान के साथ जवाब देती कि
‘चख रही हूँ, मीठे हैं या खारे; क्योंकि खुशी के आँसू मीठे होते हैं और ग़म के नमकीन।’

आँखों ही आँखों में एक और सवाल, ‘कैसे हैं?’
फ़िर हँसते हुए परिमल खुद ही जवाब दे देता, ‘मीठे ही होंगे, आखिर तुम्हारे रहते मैं दुखी रह सकता हूँ भला?’

फ़िर अचानक ही पीहू की गोद में लेटकर कहने लगता, ‘तुम्हारी गोद में लेटकर रोने से सुकून आता है। सीने में जब्त दु:ख, जो इतने सालों में जहर बन चुका है और अन्दर ही अन्दर रिसता रहता है, उसे पिघला कर इन आँखों के रास्ते बाहर निकाल देना चाहता हूँ।’

पीहू प्यार से उसकी आँखों को चूम लेती है.....................।

                x  x  x  x

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

दर्पण हमेशा झूठ ही बोलता है...!






सुन्दरता को हमारे समाज ने सर्वोच्च स्थान पर स्थापित कर दिया है... यही वजह है कि आज शारीरिक और मानसिक रूप से अपंग लोगों के प्रति समाज का व्यवहार बहुत ही गंदा है,क्योंकि उनका शरीर और चेहरा विकृत हो जाता है, जिससे वे इनकी SO CALLED सुन्दरता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते...भले ही वो कितने ही गुणवान क्यों ना हो...। और शायद यही वजह है कि लोग किसी के चेहरे पे एसिड फ़ेंकने से बाज नहीं आते, क्योंकि उन्हें ऐसा लगता है कि ऐसा करके वो उनकी सुन्दरता को नष्ट करके उनकी ज़िन्दगी नरक बना सकते हैं।
 
सुन्दरता वो भयानक सच है, जिसके लिए ना जाने कितने मासूम किन्तु असुन्दर लोग नित्यप्रति सूली पर चढ़ा दिए जाते हैं। ऐसा सदियों से होता आया है और शायद आने वाली अनगिनत सदियों तक होता रहेगा; अगर हम जल्दी ही नहीं चेते तो। जब तक खूबसूरत लोगों की तारीफ़ की जाती रहेगी, तब तक बदसूरत लोगों को प्रताड़ना मिलती रहेगी या अन्य शब्दों में कहें तो जब तक खूबसूरती को एक गुण माना जाता रहेगा, असुन्दर होना एक अवगुण बना रहेगा।
 
मैं सुन्दरता को कोई गुण नहीं मानती, पर शायद आप मानते हैं; तो क्या आप किसी ऐसी बेहद खूबसूरत लड़की से शादी करना पसन्द करेंगे, जो मानसिक रूप से अक्षम हो? आप शायद आश्चर्य से मेरी तरफ़ देखेंगे और हँस देंगे कि पागल है!
पर मैं यहाँ पर एक सवाल पूँछना चाहती हूँ कि जब खूबसूरती स्वयं में एक गुण है, ( और शायद आप लोगों की दृष्टि में एक सर्वोत्तम गुण है, क्योंकि उसके सामने तो और सभी गुण फ़ीके पड़ जाते हैं ) तो उसे किसी और गुण के सहारे की आवश्यकता क्यों है? हम किसी लेखक को तो अपनाने से पहले नहीं पूँछते कि आप अच्छा गाते तो हैं ना या किसी फ़ुट्बालर से नहीं पूँछते कि नृत्य में प्रवीण हो या नहीं?
 
हो सकता है कि ये प्रश्न भी आपके मन के किसी कोने में हिचकी ले रहा हो कि अगर किसी की सुन्दरता की तारीफ़ कर भी दी, तो किसी अन्य का क्या बिगड़ गया? इस बारे मे मैं इतना ही कहूँगी दोस्त! कि जब आप किसी को लड़का, धनी या सुन्दर होने के लिए क्रेडिट देते हैं, तो सीधी सी बात है कि आप इनके विपरीत गुण वालों को कमतर मानते हैं।
ये कहने से काम नहीं चलता कि मेरे मन में कुछ नहीं है।
 
वैसे अगर आप मुझसे पूँछें तो किसी को प्यार करने के लिए सुन्दरता तो क्या किसी अन्य गुण के होने की भी कोई आवश्यकता नहीं। क्या हम इतने स्वार्थी हैं कि किसी की काबलियत को देखकर प्यार करेंगे? यही वजह है कि किसी भी कलाकार के सर्वश्रेष्ठ समय में हम उसे प्यार देते हैं, परन्तु बुरे समय में उसे अँधेरी गलियों में भटकने को छोड़ देते हैं। शायद इन्हीं वजहों ने इस कहावत को भी जन्म दिया होगा कि,
 
‘चढ़ते सूरज को तो हर कोई सलाम करता है।’
 
वस्तुओं को उपयोगी ना होने पर हम फ़ेंक देते हैं या खरीदते समय उसकी सुन्दरता और टिकाऊपन देखते हैं, पर मानव-मात्र के साथ ऐसा व्यवहार मानवता को शर्मसार करता है दोस्तों!
 
पूरा लेख पढ़ने के बाद भी आप लोगों के मन में ये प्रश्न अभी भी हिलोंरे अवश्य मार रहा होगा कि सुन्दरता को एक गुण क्यों ना माना जाए, जबकि वो है; तो इसके जवाब में मैं यही कहूँगी कि गुण वो होता है, जो कभी नष्ट नहीं होता, निरन्तर प्रयास से गुण निखरता है और बाँटने से बढ़ता भी तो है। पर दूसरी तरफ़ आप खुद ही देखिए कि सुन्दरता ना तो प्रयास से और ना ही बाँटने से ही बढ़्ती है और इसे नष्ट होने में भी पल-छिन नहीं लगता।
 
तो आप इसे गुणों के सिंहासन से उतारिए और ये मानिए कि ‘दर्पण हमेशा झूठ ही बोलता है।’
 
नोट:- कुछ लोगों का ये कहना है कि मैं स्वयं सुन्दर नहीं हूँ, इसलिए सुन्दरता को गुण नहीं मानना चाहती। परन्तु दोस्तों सच तो ये है कि शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम तथा किसी बीमारी या अन्य कारणवश कुरूप हुए लोगों को समाज में उनका सर्वोत्तम स्थान दिलाने के लिए ये अत्यन्त आवश्यक है। शायद यही प्रेरणा मेरे इस लेख को लिखने का कारण बनी और सच तो ये है है कि मैं इसे एक आन्दोलन बना देना चाहती हूँ। बस आपका साथ चाहिए.....  :))
 
                        x   x   x   x

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

श्रद्धांजलि एक महान पुरुष को...! (२)




गांधीजी को श्रद्धांजलि की श्रृंखला में आज एक और कड़ी...

 

 

सबसे ज्यादा अगर लोग गाँधी को किसी बात पर धिक्कारते नज़र आते हैं तो वो इस बात पर कि उन्होंने देश का बंटवारा करवा दिया... साथ ही वो लोग भी जो ऐसा नहीं मानते, उनके मन में भी कभी-२ ये प्रश्न ज़रूर उठता होगा कि क्यों, आखिर क्यों गांधीजी देश के बंटवारे पर सहमत हो गए, जबकि उन्होंने कहा था की देश  का विभाजन मेरी लाश पर होगा...

पर जहाँ तक मैं गांधीजी को समझ पाई हूँ, उनकी स्थिति उन माता-पिता की तरह हो गयी थी, जो एक-दूसरे के खून के प्यासे अपने पुत्रों की सुख-शांति के लिए उन्हें अलग कर देते है... शायद आपको याद नहीं हैं उस समय की परिस्थितियां, जब हिन्दू और मुसलमान, जो एक-दूसरे को अपने पडौसी से ज्यादा भाई मानते थे, अब उनके खून के प्यासे हो गए थे... कैसे देख पाते गाँधी जी अपने ही बच्चों का खून इस तरह बहते हुए...

गाँधी जी पर इलज़ाम लगाने वाले लोग शायद उन २७ दिनों को भूल जाते हैं, जब गाँधी जी ने देश का बंटवारा रोकने के लिए जल तक ग्रहण नहीं किया था... ये खून-खराबा देख कर उनका ह्रदय चीत्कार कर उठा था...  उन्हें पटेल और राजगोपालाचारी द्वारा समझाया गया कि अब ये विभाजन रुकना मुश्किल है,  क्योंकि कुछ कुत्सित लोगों की सोच ऐसा होने नहीं देगी, आप भले ही अपने प्राण त्याग दें... इस पर गाँधी जी सहमती देने पर मजबूर हो गए, पर उन्होंने अन्न-ज़ल ग्रहण करने की स्वीकृति तभी दी, जब हिन्दू और मुसलमान अपने-२ अस्त्र-शस्त्र छोड़ कर ये प्रतिज्ञा करें कि अब ये खून-खराबा नहीं होगा...

गांधीजी ने विभाजन तो स्वीकार कर लिया था, पर वो अन्दर ही अन्दर पूरी तरह टूट गए थे और ये आज़ादी भी अब उन्हें बेमानी लगने लगी थी...

नमन उस महान विभूति को.....

                                                                               
          x   x   x   x 


गांधीजी के शब्दों में, " हिन्दू और मुस्लिम मेरी दो ऑंखें है..."

अब आप ही बताईये, कैसे कोई व्यक्ति अपनी एक आंख को रोता हुआ और एक आंख को हंसता हुआ देख सकता है...

हम चाहें तो गाँधी को समझ सकते हैं, पर कोशिश ही नहीं करते...
बुराई करने से फुर्सत जो नहीं मिलती...



                                                           x     x     x     x
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...